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Wednesday, February 9, 2011

बाजार है या कि पत्रकारिता

पेड न्यूज और कारपोरेट के दलाली में हर पत्रकार शामिल नही

कोई सभ्यता हो या फिर कोई पेशा,या कि फैशन सबके चर्मोकर्ष का समय आता है। ये उत्कर्ष उसके फिर से शुरूवात का भी संकेत होती है। आज कल मीडिया को लेकर शांत बहस चल रही है।शांत बहस इसलिए कि सभी मीडिया संस्थान के लोग जी भर कर मीडिया के अधिकारों पर बात करना चाहते है। लेकिन अपने दायरे मे रहते हुए कोई पहल नही कर पा रहा है।ऐसा इसलिए है,क्योंकि आज का पत्रकार वो मजबूर चीज है,जिसे केवल बिकने लायक समाचार देना होता है। और अपनी नौकरी बजानी होती है। और ना कुछ सोच पाता है, ना करना ही चाहता है। अगर नौकरी चली गयी तो क्या खिलाएगा अपने परिवार को। मै बात कर रहा हूं , कि हर मीडिया कर्मी आज बोलना चाहता है। मीडिया के अधिकारों के बारे में क्यों कि पेड न्यूज या कारपोरेट के दलाली में हर पत्रकार नही शामिल है। लेकिन पहले मै कहना चाहूंगा ऐसा क्ंयू होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि आज भारत में पत्रकारिता का बाजार दुनिया में एक बडा बाजार है। कहने का मतलब है,भारत अखबारों का सबसे बडा बाजार है। 107 मिलियन अखबार यानि 10 करोड 7 लाख अखबार रोज बिकते है भारत में। और देश में छोटे बडें मिला कर 417 चैनल। इसके अलावा बेब मीडिया भारत में सशक्त हो रहा है,अपनी आवाज पूरे विश्व में बुलंद कर रहा है। तो ऐसे में भारत मीडिया को लेकर एक बडा बाजार है, लेकिन सच्चाई ये है ,कि बाजार है मीडिया जहां खबरे बिकती है।पत्रकार बिकने वाली खबरे ही चाहता है क्योंकि उसका संम्पादक उससे बिकने लायक खबर ही मांगता है। अच्छा ले आउट,बिकने लायक बिजुअल,अच्छी एडीटिंग और ना जाने क्या क्या ये ही सभी आज की पत्रकारिता है। क्योंकि आज के समाचार चैनलों या फिर समाचार पत्रो की ये ही सच्चाई है,कि पंच लाइन तो खरी खबर या सच्ची खबर हो सकती है,लेकिन उसी समाचार पत्र या चैनल का मालिक या सम्पादक या फिर प्रोडूसर या न्यूज रूम हेड ये कहता मिल सकता है कि अरे यार इनकी खबर क्यों हाईलाइट कर रहें हो। इनसे तो विज्ञापन मिलता है। अब जब विज्ञापन के लालच में एक अखबार का मालिक या संपादक किसी फर्म या किसी व्यक्ति के खिलाफ समाचार छापने से पीछे हटता है। तो स्पष्ट है ये ही लोग पैसे लेकर समाचारों को छापते भी है,और इन्ही लोगो के कारण पत्रकार व पत्रकारिता बदनाम भी हो रही है।गौर तलब है ना तो सभी पत्रकारों की हिम्मत ही होती है पैसा उगाही की ना उनको लोग पैसा देते ही है। ये पैसा उगाही का काम तो एडीटरों या बडे प्रोडूसरों का ही है जो बेकार मे पत्रकारोें के सर अपना पाप मढतें है। और उन समाज के लोगो का भी जो इस खबरों की दलाली करने के लिए एक पत्रकार को पैसे से फासते है। आज कोई ऐसा पेशा नही है। जो साफ दामन हो। हर जगह करप्सन फैला है,पत्रकार को एक मीडिया चैनल या समाचार पत्र क्या देता है। 18 घंटों का काम करवा कर 6 से 25 हजार रूपए की सेलरी। फिर जब उसे समाज के लोगो से कोई पैसे का आफर मिलता है,तो वो ऐसा काम करता है। और पत्रकार भी समाज का हिस्सा होता है। मै ये नही कह रहा कि पत्रकारों द्वारा की जा रही पेड न्यूज सही है।मै ये कर रहा हमारा समाज ही पतन की ओर उन्मुख है। पत्रकारिता ही नही हर पेशा दागदार हुआ है और इन सभी का कारण समाज के नैतिक मूल्यों का पतन है।जिसकी जिम्मेदारी अकेले पत्रकारिता की नही थी।पत्रकारिता भी जिम्मेदार है।उतना ही जितना कि आप हम और हमारे समाज की। हालाकिं सच उजागर है,मै उस सच पर तो चर्चा नही करना चाहता ,कहना ये चाहता हूं , कि पत्रकार संपादक ,प्रोडूसर या फिर मीडिया संस्थानों के मालिक पेड न्यूज से हाथ इसलिए रंगते है। क्योकिं अर्थ के मोह में कौन नही फसता,सभी फसते है, कोई कम कोई ज्यादा । इसलिए आज मीडिया जब कि अपने चर्मोत्कर्ष पर है , मीडिया के लोगो को अपने समाज के बारे मे सोचने की ज्यादा जरूरत है। और वो भी खास कर युवाओं को क्योंकि मीडिया के युवाओं की जिम्मेदारी बढ जाती है अपने समाज को लेकर। पेड न्यूज को खत्म करना है,तो युवाओं को ही कुछ करना पडेगा।
रवि शंकर मौर्य पत्रकार,कोटा
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